साहित्यकार समाज का पथ-प्रदर्शक

सुनील कुमार माथुर

33, वर्धमान नगर, शौभावतो की ढाणी, खेमे का कुआ, पालरोड, जोधपुर (राजस्थान)

साहित्यकार समाज का पथ प्रदर्शक होता हैं। वह समाज में जैसा देखता है वैसा ही लिखता है। इसी के साथ ही साथ वह अपने विचारों के साथ समाज को एक नई दशा और दिशा भी देता है।‌ वह हर समय समाज के उत्थान के लिए चिन्तन मनन करता रहता हैं। यही वजह है कि साहित्यकार समाज का पथ प्रदर्शक होता है।

एक दिन लेखक अपने कार्टूनिस्ट मित्र चांद मौहम्मद से साहित्य पर चर्चा कर रहा था तभी स्वत्रंत लेखक व पत्रकार चेतन चौहान का फोन आया और कहने लगा कि एक पत्रकार महोदय को बाल साहित्यकार की जरुरत है जो नियमित रुप से उनकी पत्रिका के लिए लिख सकें। इसके लिए मैंने आपका हवाला दिया है और शायद कुछ ही देर में उनका फोन भी आ जायेगा।

वास्तव में थोडी देर में उन पत्रकार महोदय का फोन आ गया। वार्ता अनुसार लेखक ने बाल सामग्री भी भेज दी। दो अंकों में रचनाएं प्रकाशित करने के बाद संपादक महोदय ने बाल साहित्यकार से पत्रिका का वार्षिक शुल्क मांगा।

लेखक ने संपादक महोदय को स्मरण कराया कि नियमानुसार लेखक को लेखकीय प्रति निशुल्क भेजी जाती है व हर प्रकाशित रचना का परिश्रमिक भी दिया जाता है। संपादक महोदय को लेखक की यह बात रास नहीं आई और उन्होंने चेतन चौहान से कहा वो बाल साहित्यकार अंहकारी है कोई और बताइये। चौहान ने जब यह बात बाल साहित्यकार को बताई तो उन्होंने कहा कि वो संपादक महोदय मुफ़्त का चंदन घिसना चाहते है।

आप उनसे कहिए कि आज के कलयुग में बाल साहित्यकारों की भ्रूण हत्या हो रही है। बाल साहित्यकारों का अकाल पड गया हैं। साहित्यकार जो सच्चा होता हैं वह किसी संपादक महोदय की चापलूसी नहीं करता है चूंकि उसकी लेखनी में दम होता हैं। वह समाज का सजग प्रहरी होता हैं। साहित्यकार दिन-रात श्रेष्ठ चिन्तन मनन करते हैं तब जाकर श्रेष्ठ साहित्य की रचना करते हैं।

साहित्यकार , रचनाकार , कवि , लेखक कोई धानिया भगवानियां नहीं होता हैं जो यूं ही रचनाएं लिख दें। उनका अपना स्तर होता हैं। वे समाज के सजग प्रहरी होते है। समाज में उनका मान-सम्मान होता हैं। पद प्रतिष्ठा होती है।‌ लेखनी दमदार होती है तभी तो उनकी रचनाएं पत्र पत्रिकाओ में धड़ल्ले से प्रकाशित होती है। वे हर पल विचारों का मंथन करते रहते है तब जाकर छाछ में से मक्खन और घी (श्रेष्ठ रचना) निकाल पाते है।

सच्चे व श्रेष्ठ साहित्यकारों को छपाक का रोग नही होता हैं। श्रेष्ठ साहित्य लेखन उनका धर्म हैं और उनकी रचना का प्रकाशन करना संपादक मंडल का धर्म हैं। सच्चा लेखक व साहित्यकार चंदा मांगने वाले संपादकों व प्रकाशकों से सदा दूर रहता हैं। चूंकि उसकी लेखनी में दम होता हैं। फटकदार व मिसाइल से भी तेज उसकी लेखनी की मारक क्षमता होती है।

अत: संपादक व प्रकाशक महोदय रचनाकारों का सम्मान करना सीखें। उन्हें लेखकीय प्रति निशुल्क भेजे व हर प्रकाशित रचना पर नियमानुसार उचित पारिश्रमिक दें। आखिर उन्हेंं भी तो अपना परिवार पालना है। वे संपादक व प्रकाशक से अपना हक ही तो मांगते है कोई भीख नहीं। एक श्रेष्ठ साहित्यकार सदैव झोलाछाप प्रकाशकों से दूर ही रहता हैं। यही कारण है कि साहित्यकार समाज का पथ-प्रर्दशक होता है। छपास का रोगी नहीं।

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