बिना पाठकों के कोई भी पत्र-पत्रिका बाजार में टिक नहीं सकती
सुनील कुमार माथुर
आजादी के बाद देश में जहां एक ओर विकास हुआ वहीं दूसरी ओर भष्ट्राचार चरम सीमा पर फैल गया हैं । आज बिना लेन – देन के कोई भी कार्य आसानी से नहीं होता हैं । इतना ही नहीं उचित मूल्य से निर्धारित होने के बावजूद भी अधिक दाम वसूले जा रहें है चूंकि कि इन लुटेरों पर अंकुश लगाने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाये जाते हैं । सरकारे आती हैं और चली जाती हैं लेकिन जनता-जनार्दन की कोई नहीं सुनता । हां कभी कभाद खाना पूर्ति करने के नाम पर चालान बनाकर इतिश्री कर ली जाती हैं ।
देश भर में हर रोज रिश्वत लेने वाले पकडे जाते हैं फिर भी भ्रष्टाचार दिन दूनी रात चौगुनी बढता ही जा रहा हैं । चूंकि भ्रष्टाचार की गंगा में डूबकी ऊपर से नीचे तक के हर अधिकारी व कर्मचारी लगा रहें है । भ्रष्टाचार आज भ्रष्टाचार न होकर सुविधा शुल्क बन गया हैं । वाह रे मेरे आजाद भारत आज किसी को भी कानून कायदों का डर नहीं है । दिन दहाडे नियमों की धज्जियां उड रहीं है । अपराध बढते ही जा रहें है और समाचार पत्रों में बलात्कार की घटना एक स्थाई कालम सा बन गया । बलात्कार की खबरें जब तक मीडिया न दे तब तक उसे रोटी नहीं पचती ।
आज रिश्ते तार – तार हो रहें है । राजनीति का स्तर दिनों दिन गिर रहा हैं । एक – दूसरें पर आरोप – प्रत्यारोप लगाना आम बात हो गयी हैं । चोरी , डकैती , खून खराबा , लूटपाट , लडाई – झगडों के समाचारों से आये दिन अखबार भरे पडे रहते हैं । सकारात्मक खबरें कम हो गयी हैं । चूंकि मीडिया सनसनीखेज खबरों के नाम पर आपराधिक घटनाएं अधिक प्रकाशित कर रहा हैं चूंकि ऐसी खबरों में खबरे बनाने में मेहनत नहीं करनी पडती हैं । थानों से व पुलिस कंट्रोल रूम से कम्प्यूटर पर टाइप की हुई व बनी बनाई खबरे जो मिल जाती हैं । आज अधिकांश प्रेस विज्ञप्तियां रद्दी की टोकरी की शोभा बढाती हैं चूंकि अखबार कम्प्यूटर ऑपरेटरों के भरोसे चल रहें हैं । संपादक व प्रकाशकों का ध्यान केवल विज्ञापनों की ओर ही रहता हैं ।
आजादी के मिशनरी पत्रकारिता थी लेकिन आज की पत्रकारिता व्यवसायिक पत्रकारिता हो गयी हैं । पत्र – पत्रिकाओं ने स्थानीय लेखकों , समीक्षकों, साहित्यकारों व रचनाकारों की उपेक्षा करनी शुरू कर दी हैं । आज संपादक मंडल समाचार पत्रों में जन समस्याओं को उजागर नहीं कर रहें है जिससे समस्याएं ज्यों की त्यों बनी रहती हैं । आज पत्रकारिता के क्षेत्र में खोजी पत्रकारिता का नितांत आभाव नजर आ रहा हैं । हां कुछ समाचार पत्र व पत्रकार इसके अपवाद हो सकते हैं । लेकिन उनकी संख्या बहुत ही कम हैं । समस्याएं तो समाधान चाहती है न कि दलगत राजनीति ।
साहित्य समाज का दर्पण तभी तक हैं जब तक पत्र – पत्रिकाएं अपने पत्रों में स्थानीय रचनाकारों को स्थान दे । जब से नेटवर्क की दुनियां आई हैं तभी से पत्र – पत्रिकाओं में समाचारों व आलेखों के नाम पर खानापूर्ती होने लगी हैं व पाठक पत्र – पत्रिकाओं से कटते जा रहें है । यहीं वजह है कि आज बाजारों में इनके खरीददार नहीं मिल रहें है और धीरे – धीरे पत्र – पत्रिकाओं का प्रकाशन बंद हो रहा हैं ।
पत्र – पत्रिकाएं पाठकों को तभी जुटा पायेगी जब वो स्थानीय और क्षेत्रीय रचनाकारों को अपनी पत्र – पत्रिकाओं में अधिकाधिक स्थान देकर उन्हें प्रोत्साहन दे । कोई भी पत्र – पत्रिका बिना पाठकों के अधिक समय तक बाजार में नहीं टिक सकती । विज्ञापनों से आप धन कमा सकते हैं लेकिन साहित्यकारों की लेखनी के भाव , भाषा व प्रस्तुतिकरण की कला को नहीं पा सकतें ।
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