जीवन में उमंगो को व्यक्त करता है होली

आशुतोष

शरद की समाप्ति के साथ ही बसंत का आगमन और फिर होली की हुड़दंग और रंग -गुलाल मानो सभी एक ही रंग में रमाये हो । आज कोई भिन्नता नही दिखती जैसे प्रकृति एक समान रंगीन हो जाती है ठीक वैसे ही सभी रंग और गुलालों में रंग जाते हैं ।हमारे देश का मौसम चक्र ही कुछ ऐसा है जहाँ हर मौसम की अपनी विशेषता है।

बसंत में होली उनमें खास है।बसंत की हवा में वो मीठा एहसास है पुष्प पराग उनमें खास हैं।मनुष्य भी इससे अछूता नही इसलिए बसंत में सभी वेताव हैं ।यह मधुमास का मौसम अनगिनत वर्णन और सौंदर्य को लेकर आती है जहाँ कोयल की बोली आम का बगीचा सुन्दर फूल हरे भरे खेत और मस्त पवन का झोंका मानो एक पल में लेकर उड़ना चाह रही हो।

खेतो में सरसों के फूल गेहूँ की फूटती बाली चने के दानो पर चिड़िया न्यारी प्यारी मानो पूरे वर्ष का सामान इकठ्ठा कर रही हो।क्या बच्चे क्या बूढ़े सभी लग जाते इस रंग के मेले में और प्रकृति के इस अदभूत नजारो का लुफ्त लेते है कोई गाकर कोई बजाकर कोई सजकर कोई नाचकर वेहद अदभूत और अविस्मरणीय बन जाते हैं।

मार्च का महीना और होली कितने प्यारे कितने न्यारे पर फीकी फीकी सी है मँहगाई के मारे।किसी को रोजगार नही किसी को घर नही पर होली तो मनायेंगे सारे।सबके सपने अनमोल है सभी है अपने सहारे।

जहाँ तक होली का सवाल है तो होली हमारी संस्कृति का हिस्सा है।भक्त प्रह्लाद होलिका दहन और हिरण्यकश्यप की कहानियो से जुडा यह पर्व आस्था के साथ साथ प्रकृति प्रेम को भी उसी तरह दर्शाता है।सात रंगो का समा आस्था के दीप में नहाकर सभी लोग आज भी एक साथ पर्व मनाते है जिस तरह से सदियों पहले मनायी जाती थी।

गाँवो की होली कुछ खास होती है।ढोल नगाडे भांग अबीर गुलाल के साथ टोलियों में जोगीरा गाकर सभी खूब नाचते गाते हैं साथ ही सभी लोग क्या बच्चे क्या बूढे एक दूसरे को रंग अबीर लगाकर खुशी का इजहार करते है ।पुआ पकवान सभी एक दूजे के धर खाते हैं।

शहर की होली उतनी खास नही होती क्योंकि यहाँ की होली एक परिवार या एक रूम, फ्लैट में सिमट कर दम तोड़ने लगी है कुछ लोग ही ऐसे है जो घर से निकलकर होली खेलते जिनमें केवल युवा ही ज्यादा होते हैं।

बाजारो में रंगो का घटता स्तर मिलावट का बाजार अब गुलाल और रंग खेलने की ईजाजत नहीं देते फिर भी कुछ न कुछ तकरीबन इस्तेमाल किया ही जाता है।शराब का बढ़ता प्रचलन भी होली को कुछ हद तक अकेला कर दिया है।

होली रंगो और पौराणिक परम्पराओं और आपसी सौहार्द के साथ हमारी एकता और अखण्डता के लिए एक शानदार त्योहार है ।बसंत अपने शबाब पर होता है बसंती हवा के बीच यह रंगो का त्योहार हम सब को कालान्तर से एक साथ जोड़ती रही है।

बीते कुछ वर्षो मे मँहगाई और बेरोजगारी ने भी इस पर्व के उल्लास को फीका कर दिया है ।खाने पीने पहनने रंग गुलाल सभी की बढती कीमत ने पर्व को ही नही बल्कि इस पर्व से जुडे हुए व्यवसायी को भी नही छोडा है। आज बेरोजगारी की विक्रालता ने लोगो को ऐसा विवश कर दिया है कि बहुत से लोग दो जून की रोटी के लिए ईधर उधर भटकते हैं ऐसे में पर्व कब आया और कब गया पता ही नही चलता।

होली के पारम्परिक तरीके और सादगी को व्यवसायिक बनाया गया हमारी खुद की रंग और गुलाल की जगह मिलावट युक्त किया गया जो अब उपयोग करने योग्य नही रहा है।खान पान में भी मिलावट का दौर बदस्तूर जारी है जिनसे बचना ही ज्यादा फायदेमंद है।

किताबी ज्ञान के चक्कर में आज के युवा वर्ग इस तरह के माहौल को पसंद भी नही करते क्योंकि बहुत से युवाओ ने गाँवो की संस्कृति और होली से जुडी कहानियों के बारे में जानते भी नही क्योंकि उन्हें अपनी संस्कृति के बारे में विस्तृत जानकारी या समय देने का मौका नही मिला।कई ऐसे उदाहरण मिल जाएँगे।पहले का दौर था जब लोग दादा- दादी नाना- नानी गाँव के बडे लोगो के बीच बैठकर उनके संपर्क में रहकर हर तरह की कहानीयों व्यवहारिकताओं और उच्च विचारों को सीखते थे।आज वो दौर नही है टीवी और मोवाइल से हम अपनी संस्कृति को कैसे संभालेंगे और होली की विशेषता को कैसे जीवित रखेंगे यह सोचनीय है।

अतः आज की युवा पीढी को आने वाले समय के लिए और अपनी संस्कृति को समझने के लिए अपने लिए कुछ समय इन सभी सांस्कृतिक पर्व पर भी देना चाहिए जिनसे उनकी आने वाली पीढी भी इसी तरह हर मौसमी पर्व का लुफ्त उठाती रहे जिससे हमारी संस्कृति और मजबूत बना रहे।


¤  प्रकाशन परिचय  ¤

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From »

आशुतोष, लेखक

पटना, बिहार

Publisher »
देवभूमि समाचार, देहरादून (उत्तराखण्ड)

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