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साहित्य लहर

लघुकथा : अधिकार

वीरेंद्र बहादुर सिंह

डोलबेल बजते ही नवपरिणीत पूजा ने दौड़ कर दरवाजा खोला। पर आगंतुक को देखते ही सहम कर वह दो कदम पीछे खिसक आई। इसके बावजूद मुसकराते हुए बोली, “वो घर में नहीं हैं और मां जी तो आप के घर ही गई हैं।” “जानता हूं पूजा डार्लिंग, इसीलिए तो आया हूं। स्वागत नहीं करोगी?” चेहरे पर विकृत हंसी के साथ लगभग धकेलते हुए वह घर में घुसा और पैर फैला कर सोफे बैठ कर हंसते हुए बोला, “मैं तो अपनी पूजा डार्लिंग के कोमल हाथों की गरम-गरम चाय पीने आया हूं। चलो, फटाफट चाय बनाओ।”

मजबूरन पूजा को चाय बनाने जाना पड़ा। चाय बनाते हुए वह मन ही मन भगवान से यही प्रार्थना कर रही थी कि ‘हे भगवान मेरी लाज बचाना।’ चाय का कप ला कर पूजा ने तिपाई पर उसके सामने रखा तो उसने कहा, “स्वागत नहीं किया तो कोई बात नहीं, पर इस तरह नीचे चाय रख कर मेरा अपमान तो मत करो पूजा डार्लिंग। मेरी इज्जत करना तुम्हारा फर्ज है।”

मजबूर पूजा ने चाय का कप उठाकर उसके हाथ में थमाया, तो उसने तुरंत पूजा का हाथ पकड़ कर कहा, “अपने हाथ से पिला दो न डार्लिंग। तुम पर मेरा भी पूरा हक है। मैं ने जब से तुम्हें देखा है, पागल हो गया हूं। बस, केवल एक बार…” “होश में आओ। छोड़ो मेरा हाथ। तुम यह क्या कह रहे हो?” अपना हाथ छुड़ाते हुए पूजा गिड़गिड़ाई।

“आज तो मैं तुम्हें छोड़ने वाला नहीं। इस घर का मैं एकलौता लाडला दामाद हूं। मेरा हक के साथ अधिकार भी है तुम पर। तुम ने मेरा स्वागत नहीं किया, इसलिए मैं तुम से नाराज हूं। अब तुम मुझे खुश करो।” इतना कह कर उसने उठ कर पूजा को बांहों में भर लिया।
‘तड़ाक’ से एक तमाचा मार कर पूजा उसे धकेल कर अलग हुई और गुस्से में लाल-पीली होते हुए उसने दरवाजा खोल कर कहा, “अब तुम तुरंत यहां से चले जाओ, नहीं तो…”

“नहीं तो क्या? क्या कर लोगी तुम? मैं तुम्हें देख लूंगा। अपने इस अपमान का बदला लूंगा। तुम्हें इस घर से निकलवा कर ही रहूंगा।” गुस्से में कहते हुए वह घर से निकल गया। इसके बाद उसने घर जाकर सास, साले और पत्नी के कान पूजा के खिलाफ भरने लगा। उसने झूठ कहा कि पूजा ने उसका स्वागत करने के बजाय अपमानित कर के घर से निकाल दिया।

“दामाद जी, तुम राज को अपने घर बुला कर मेरे घर क्यों गए? तुम ने जरूर कुछ उल्टा-सीधा किया होगा। मेरी बहू बहुत समझदार है। अगर मेरे घर की लक्ष्मी का अपमान करोगे तो आपका सम्मान और सत्कार कैसे होगा। चलो राज, अब यहां रुकने का कोई मतलब नहीं। पूजा डर गई होगी। उसे इस बात का बड़ा आघात लगा होगा। इस आघात में वह कोई गलत कदम उठा ले, उसके पहले हमें घर पहुंच जाना चाहिए।”



इतना कह कर पूजा की सास उठी और अपने घर के लिए चल पड़ी। घर आ कर सब से पहले उसने पूजा को बांहों में ले कर कहा, “बेटा, तुम बिलकुल मत डरना। मैं तुम से कुछ भी नहीं पूछूंगी। तुम ने जो भी किया होगा, वह उचित ही होगा। तुम मेरी कुलवधू हो। इस घर में किसका स्वागत करना है और किसका स्वागत नहीं करना, आज से मैं इसका अधिकार तुम्हें देती हूं।”
पूजा की आंखों में खुशी के आंसू आ गए। वह सास के चरणों में झुक गई।




¤  प्रकाशन परिचय  ¤

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वीरेंद्र बहादुर सिंह

लेखक एवं कवि

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जेड-436-ए, सेक्टर-12, नोएडा-201301 (उत्तर प्रदेश) | मो : 8368681336

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देवभूमि समाचार, देहरादून (उत्तराखण्ड)

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